
सराईपाली की सरज़मीं पर ज़िक्र-ए-हुसैन की रौशनी में डूबी महफ़िल — एक रूहानी इतिहास दर्ज
मुहर्रम की पहली से दसवीं तारीख़ तक सराईपाली की पवित्र ज़मीन पर हज़रत इमाम हुसैन रज़ि० अ० की याद में आयोजित दस रोज़ा महफ़िल-ए-ज़िक्र-ए-हुसैन ने एक बार फिर साबित कर दिया कि यह महफ़िल सिर्फ मजलिस नहीं, बल्कि एक रूहानी अनुभव होती है जो दिलों को जोड़ती है, आत्मा को झकझोरती है और इंसान को हक़ के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देती है।
इस यादगार कार्यक्रम में शिरकत करते हुए न सिर्फ मुस्लिम समाज बल्कि इंसानियत से जुड़ा हर दिल शामिल हुआ, जिसने कर्बला के दर्द को अपने अश्कों और अकीदत से महसूस किया।
महफ़िल में रहबर-ए-शरीअत, पीर-ए-तरीक़त हज़रत मुफ्ती इरशादुल क़ादरी साहब क़िब्ला ने अपने दर्द भरे और असरदार बयानों से कर्बला की हकीकत को आम लोगों के दिलों तक पहुँचाया। उनकी तकरीर में हर लफ़्ज़, हर मिसरा, सब्र और हिम्मत का पैग़ाम लिए हुए था, जिसने मजलिस में बैठे हर इंसान को झकझोर कर रख दिया।
इस महफ़िल को सफल बनाने में मुस्लिम जमात सराईपाली की रहनुमा कमेटी की मेहनत काबिल-ए-सलाम रही। मुतवल्ली हाजी शाहिद खान साहब और नाएब मुतवल्ली असफाख खान साहब की सरपरस्ती में रफीच चच्चा (सेक्रेट्री), डॉक्टर शाहजहां (कैशियर), शेख नकीब, गुलाम दस्तगीर, मजहर खान सहित पूरी टीम ने तन, मन और समय देकर एक बेहतरीन आयोजन को अंजाम दिया।
ईमाम अब्दुस्सत्तार अशरफी साहब ने मंच संचालन को बहुत ही खूबसूरती और सलीके के साथ निभाया।
मदरसे के मुदर्रिस साहब, मोअज्जिन साहब और अन्य उलमा-ए-किराम की मौजूदगी ने महफ़िल को और भी रूहानी बना दिया।
इस बार ख़ास बात यह रही कि मां-बहनों के लिए अलग से प्रोजेक्टर की व्यवस्था की गई, ताकि वे भी इख़लास और सुकून के साथ इस नूरी महफ़िल में शामिल हो सकें। दिन में आयोजित मजलिसों में भी भारी संख्या में लोगों की मौजूदगी देखने को मिली।
शिरनी की तकसीम से लेकर नज़राने की तैयारी तक, हर पहलू में खुदा की रज़ा और हुसैनी मोहब्बत का रंग झलकता रहा।
इमरान मेमन, मतहर अली, मुजाहिद खान, जुनैद खान, आवेश हुसैन, शाहिद मेमन जैसे समर्पित लोगों ने पूरी लगन और सेवा-भावना के साथ अपनी जिम्मेदारियाँ निभाईं।
नात, मनक़बत और सलातो-सलाम की महफ़िलें दिल को छू जाने वाली रहीं।
शेख अख्तर, असलम खान, मुस्तफीज आलम, इमरान रज़ा, रहबर खान जैसे शोअरा हज़रात ने अपने अशआर से दिलों को हिला कर रख दिया।
हर क़सीदा ऐसा लगा मानो लफ्ज़ नहीं, रूह बोल रही हो।
सराईपाली जमात की वर्षों पुरानी इस हुसैनी परंपरा ने इस बार भी एक नई ऊँचाई पाई।
यह जलसा सिर्फ यादगार नहीं रहा, बल्कि एक इबादत बन गया —
एक ऐसा दिन, जब हर शिरकत करने वाला अपने ईमान की ताज़गी, अपनी अकीदत की ऊँचाई और अपने वजूद की सच्चाई के साथ घर लौटा।
"हुसैन सिर्फ कर्बला का नाम नहीं,
हुसैन हर उस दिल का नाम है जो हक़ के लिए धड़कता है।"