
ओड़िशा के पूरी में स्थित भगवान जगन्नाथ के भोग के लिए देवभोग से जाता है चावल, जानिए क्या है इसका इतिहास
ओड़िशा के पूरी में स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर
विश्व प्रशिद्ध है. साथ ही हिन्दुओं के चार प्रमुख धाम से एक भी है. पूरी में
स्थित रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है. पूरी में स्थित रसोई विश्व की
सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है. इन रसोइयों में 750 से भी ज्यादा चूल्हे हैं जिन पर
आज भी लकड़ी से आग जलाई जाती है. रसोई में एक बार में 50 हज़ार लोगों के लिए
महाप्रसाद बनता है. जबकि रथ यात्रा के दिन रसोई में 1 लाख 14 हजार लोग भोग बनाने
और दूसरी व्यवस्थाओं में शामिल होते हैं. जबकि 6000 पुजारी पूजाविधि में कार्यरत
लगते हैं.
यह महाप्रसाद में दाल, चावल, सब्जी, मीठी पूरी, खाजा, लड्डू, पेड़े, बूंदी, चिवड़ा, नारियल, घी, माखन, मिसरी आदि से बनता है. रोजाना मीठे में कम से कम से 10 चीजें शामिल होती हैं. रोजाना यहां 56 भोग तैयार होता है. जिसमे लहसुन-प्याज पूरी तरह निषेध है. तैयार भोग को अभडा कहा जाता है जिसे सबसे पहले भगवान जगन्नाथ को महाप्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है.
वहीँ छत्तीसगढ़ के देवभोग क्षेत्र के चावल गरियाबंद जिले की पहचान है. लोक मान्यता है कि पूर्व में देवभोग क्षेत्र का चावल, भगवान जगन्नाथ के भोग के लिए जगन्नाथ पुरी भेजा जाता था इसलिए इस इलाके के चावल का नाम देवभोग हो गया.
देवभोग में जगन्नाथ मंदिर का इतिहास 150 साल से भी ज्यादा पुराना है. इलाके के गांव के तब के समय में मौजूद कुल 84 गाँव के जनसहयोग से इस मंदिर को बनाने में 47 दिन लगे थे. यह एक मात्र ऐसा मंदिर है जहां भक्त अपने भगवान को लगान पटाने की परपंरा मनाते हैं. लगान के रूप में प्राप्त होने वाले अनाज का एक भाग पुरी के जगन्नाथ मंदिर के भोग के लिए जाता है.
मान्यता है कि 1820 में मिच्छकुंड नामक एक व्यक्ति भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति लेकर देवभोग से लगे झराबहाल पहुंचा था, उस दौरान लोगों में आस्था जगी तो इसके निर्माण के लिए इलाके भर के लोग एकजुट हुए जिसमें जगन्नाथ जी के झराबहाल गाँव में स्थित पुराने स्थल पर एकत्र होकर मंदिर संचालन के लिए जगन्नाथ जी को लगान स्वरूप पहले फसल का हिस्सा भेंट करने का शपथ लिया था. इसके लिए बकायादा एक शिला (पत्थर) को स्थापित किया गया था, व उसे शपथ शीला भी नाम भी दिया गया.
देवभोग अंचल में जगन्नाथ मंदिर में अन्य मंदिरों की तुलना में संचालन की अनोखी परंपरा भी है. कहा जाता है कि यहाँ के प्रसाद का एक हिस्सा जगन्नाथ पुरी भोग चढ़ने भेजा जाता था जिसके बाद ही ओड़िशा के पूरी में जगन्नाथ यात्रा शुरू की जाती थी. इलाके के सुगंधित चावल, जगन्नाथ जी के प्रिय भोग कालामूंग को ग्रहण कर पुरी पीठ ने कूसूम भोग नामक इस नगरी का नामकरण देवभोग किया गया था. तभी से ही अंचल का नाम देवभोग विख्यात हुआ है.
यहां का भोग हर साल पुरी के लिए जाता है. वहीं रथयात्रा से पहले पुरी में देवभोग मंदिर का भोग वहां लगाया जाता हैं. भोग लेने पुरी के पंडा मंदिर आते हैं. भोग के लिए उन्हें जो राशि दी जाती है उसे लेकर वे पुरी तक पहुंचते है.