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बसना विधानसभा : क्या बची है कांग्रेस की संभावनाएं ?

छतीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने में अब कुछ ही महीने शेष रह गए है. लेकिन बसना विधानसभा में कांग्रेस पार्टी धरातल पर कहीं भी नजर नहीं आ रही है. अब से 1 वर्ष पूर्व कांग्रेस से राज्यसभा के सदस्य जयराम रमेश ने कहा था कि कांग्रेस के सामने अस्तित्व का गंभीर संकट है अगर पार्टी सोच नहीं बदली तो पार्टी खत्म हो सकती है. ठीक वैसे ही परिस्थिति अब बसना विधानसभा से नजर आती दिखाई दे रही है.

देखा जाए तो पिछले 4 वर्षों में कांग्रेस कभी भी सत्ता पक्ष को घेरने में सक्षम नहीं रह पाई है भ्रष्टाचार से लेकर मुद्दों किसी भी बात के लिए कांग्रेस ना तो धरातल पे नजर आई ना ही सोशल मिडिया में मानो कांग्रेस पार्टी सत्ता में रहकर सिर्फ सत्ता का ही सुख भोगना चाहती है ना कि विपक्ष की भूमिका में सत्ता पक्ष को घेरना.

हालत अब ऐसे है कि कभी 9 बार बसना विधानसभा से जीत चुकी कांग्रेस पार्टी अब पहली बार चुनाव लड़ रही जोगी जनता कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से भी कमजोर दिखाई दे रही है. जिसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इस बार कांग्रेस से किसे टिकट दिया जाए यह स्पष्ट नहीं है इससे पहले कांग्रेस से राजा देवेन्द्र बहादुर का टिकट हमेशा से लगभग तय माना जाता रहा है लेकिन इस बार उषा पटेल सहित और भी लोग टिकट की दावेदारी जाता रहें है और हो सकता है कि टिकट मिलने के बाद ही कांग्रेस धरातल पर नजर आये.

यदि बसना विधानसभा से राजपरिवार की बात की जाए तो राजनीति के विशेषज्ञों का यह मानना है कि यदि राजा देवेन्द्र बहादुर को कांग्रेस की तरफ से टिकट दिया जाए तो लगभग 50 हजार वोट आज भी उनके नाम पर आ जायेंगे. ऐसा विशेषज्ञों का मानना इसलिए है क्योंकि 1951 से 2008 तक बसना में अब कुल 14 विधानसभा चुनाव हुए है जिसमे से राजपरिवार ने 11 बार चुनाव लड़े है जिसमे से 8 बार जीत हासिल की और 3 बार हार और जब भी इन्हें हार का सामना करना पड़ा है तब हार का अंतर बहोत ही कम रहा है.

राजपरिवार को जिन 3 बार चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है उसमे से 1990 में इन्हें 22,780 वोट मिले थे और 3,201 वोटों से इन्हें हार का सामना करना पड़ा था. इसके बाद 2003 में इन्हें 26,982 वोट मिले थे और तब 2,403 वोट से इन्हें हार मिली थी तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी के खास माने जाने वाले पुरंदर मिश्रा ने कांग्रेस से टिकट ना मिलने पर निर्दलीय उम्मीदवार बनकर 14,373 वोट काटे ऐसा माना जाता है कि इसमें से अधिकांश वोट कांग्रेस के थे. इसी समय सरिंदर सिंह मन्नू रांकपा प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे और 18,875 मत प्राप्त किये माना जाता है कि ये शत प्रतिशत वोट कांग्रेस के थे. मतों के फर्क को देखते हुए इस परिस्थिति में अगर अग्र लिखित उम्मीदवारों में से कोई एक अगर दावेदारी नहीं करता तो विजेता राजपरिवार ही होता.

अब आतें है 2008 के चुनाव में इस चुनाव में बसना विधानसभा से कांग्रेस की तरफ से राजपरिवार से राजा देवेन्द्र बहादुर को टिकट मिला और बीजेपी ने अपना दाँव खेला अघरिया समाज के प्रेमशंकर पटेल पर और निर्दलीय दावेदार सरिंदर सिंह (मन्नू) के सामने आने की वजह से ये सीट त्रिकोणीय संघर्ष में चली गयी सरिंदर सिंह (मन्नू) ने 24,925 वोट प्राप्त किये जिसमे से अधिकांशतः कांग्रेस के वोट थे. इतने अधिक वोट कटने के बाद भी राजा देवेन्द्र बहादुर ने 52,145 वोट प्राप्त किये और भाजपा के प्रेमशंकर पटेल जिन्हे 36,238 मिले उनको 15,907 वोट से हराया.

अंत में देखते है उस परिणाम को जिसकी परिणिति वर्त्तमान परिदृश्य में प्रभावी है. 2013 का चुनाव कई मायनों में अनोखा था विधानसभा चुनाव में मोदी लहर की गहरी छाप थी भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला था इसमें भी भाजपा की तरफ से पहली बार महिला उम्मीदवार को अवसर दिया गया था और पहली बार मतदान मशीन में नोटा (इनमे से कोई नहीं) का विकल्प शामिल किया गया था. और ये नोटा विकल्प तीसरे नंबर पे सर्वाधिक मत प्राप्त किया था विजेता थी भाजपा की रूपकुमारी चौधरी जिन्हें 77,137 मत प्राप्त हुए थे, और राजा देवेन्द्र बहादुर सिंह द्वितीय स्थान पर थे जिन्हें 70,898 मत मिले लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि देवेन्द्र बहादुर के व्यक्तिगत वोट बैंक में कोई खास फर्क नहीं पड़ा था.

और अब ऐसा माना जा रहा है कि इस बार बाकि चुनाव के मुकाबले अगर इस बार कांग्रेस पार्टी प्रत्याशी चयन करके उन्हें तैयारी का समुचित अवसर नहीं देती है तो इनके लिए चुनाव की तैयारी और चुनाव में जीत साथ ही सत्ता वापसी का स्वपन-स्वपन बनकर ही रह जाएगा.



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