एलजीबीटीक्यूआई+ अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों की हेल्पलाइन पर मदद मांगने के लिए आई फोन कॉल की संख्या में हुई कई गुना बढ़ोतरी
मार्च 2020 से मार्च 2021 के बीच भारत में एक साल में कोरोना महामारी से 1,62,960 मौतें हुईं थीं, लेकिन दूसरी लहर के तीन महीनों (अप्रैल-जून 2021) में ही इससे ज्यादा (2,35,524) मौतें हो गईं. इन हालात में जब भारत महामारी से लगातार जूझ रहा था, उसी दौरान एलजीबीटी समुदाय को भी असंख्य समस्याओं का सामना करना पड़ा.
यौन अल्पसंख्यक ऐतिहासिक तौर पर मुख्यधारा के पूर्वाग्रह से पीड़ित रहे हैं और महामारी ने उन्हें मिलने वाले जरूरी संरक्षण तक उनकी पहुंच को सीमित करने के अलावा, सामाजिक-आर्थिक असमानताओं, उनके प्रति परिवार के रोष और संस्थागत दुर्व्यवहार को बढ़ा दिया है. इसके परिणाम विकट मानसिक परेशानी के रूप में सामने आए हैं, जिसने क्वीर समुदाय को सहारा देने वाले बुनियादी ढांचे पर देश भर में दबाव बढ़ा दिया है.
देशभर में क्वीर संगठनों के प्रतिनिधियों से बात करने पर पता चला कि समुदाय में आपदा का बढ़ा हुआ स्तर लंबे समय से चले आ रहे कारकों के कारण था, जो लॉकडाउन की नकारात्मक परिस्थितियों के चलते सक्रिय हुए थे. परिवार के सदस्य, जो हाशिये पर पड़े एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों की यौन पहचान के प्रति असहनशील रवैया रखते हैं, अक्सर उनके अस्तित्व या पहचान को ‘मानसिक बीमारी’ के रूप में देखते हैं.
वे हमेशा क्वीर, ट्रांस (लिंग परिवर्तन कराने वालों) और समलैंगिक लोगों के साथ विभिन्न रूपों में होने वाली हिंसा के मामलों में मुख्य अपराधियों के तौर पर सामने आते हैं.
इस समुदाय के अन्य लोगों की भी बात करें तो महामारी के चलते नौकरी जाने ने देश भर से क्वीर लोगों को अपने गृह राज्य लौटने और अपने परिवारों के साथ रहने के लिए विवश किया है, जिनका रवैया लंबी अवधि की इस कैद के दौरान अत्याचारी हो गया.
कोलकाता के रहने वाले चिकित्सक, फिल्म निर्माता और समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ता तीर्थंकर गुहा ठाकुरता के अनुसार, ‘महामारी ने कुछ क्वीर लोगों को खुलकर सामने आने के लिए मजबूर किया है. अब तक घर-परिवार और समाज के डर से वे अपनी पहचान छिपाए रखते थे, लेकिन होमोफोबिक परिवारों द्वारा उन पर जोर डालने से बढ़ी बेचैनी और दबाव से हारकर उन्होंने यह कदम उठाया.’
तीर्थंकर बताते हैं, ‘ज्यादातर मामलों में जब कोई व्यक्ति अपनी पहचान का खुलासा करता है तो पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है, लेकिन फिर भी कई हैं जो घर से नहीं भागते. वे अपने कार्यक्षेत्र में सुकून भरे पल और खुलकर सांस लेने की जगह तलाशते हैं. लेकिन अब इन्हीं जगहों के अभाव में मानसिक समस्याएं काफी बढ़ गईं.’
द्वेषपूर्ण, असहनशील और अक्सर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनके गलत लिंग या नाम (जो उनके पिछले लिंग के अनुरूप थे) से संबोधित करने वाले माता-पिता के सामने, खुद को खुलकर व्यक्त करने में सक्षम नहीं होने के चलते इस समुदाय के सदस्यों में पीड़ा, आत्महत्या के विचार और खुद को नुकसान पहुंचाने की स्थिति पैदा हो गई है.