
सरायपाली : ये है बदलते और विकसित भारत के तस्वीर की कहानी, जहाँ ग्रामीण आज भी बैठे हैं पुल के इन्तजार में.
सरायपाली विकासखंड के कोकड़ी गाँव का एक बार फिर बरसात के मौसम अन्य शहर अथवा गाँव से संपर्क टूट गया है. आजादी के 77 वर्षों बाद यह गाँव केवल अब राजनीति के प्रदर्शन का केंद्र बन चूका है, चुनाव के पूर्व चुनाव जीतने के लिए कई नेता इस गाँव को समस्या का प्रमुख केंद्र बनाकर सहानुभूति लेते हुए आज बड़े पद पर आसीन हो रहे हैं, लेकिन पद मिलते ही इस गाँव से जनप्रतिनिधि अपना नाता तोड़ लेते हैं, जिसके बाद अगली बार फिर कोई नेता लोगों की उम्मीद जगाकर तोड़ देता है.
पुल नहीं होने से बच्चों को स्कूल जाने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है, आपातकाल को लेकर भी लोग चिंतित रहते हैं, बावजूद इसके यहाँ के ग्रामीणों को केवल झूठा आश्वाशन ही मिलता आया है. इस पुल को मुख्य समस्या बताकर चुने गए जनप्रतिनिधि भी अपना वादा भूल जाते हैं. या फिर कहें इस पुल को बनाने में लागत इतनी है कि, पुल को बनाते हुए शायद प्रतिनिधियों की जेब ना भर पाए, जिसके चलते इसे नजर अंदाज किया जा रहा है. यूँ तो विकास के नाम पर कमीशनखोरी आम बात हो चुकी है, जनप्रतिनिधियों के द्वारा भी केवल ऐसे ही ठेकेदारों से काम कराया जाता है जो अपने साथ साथ उनकी भी जेबें भर पाए. लेकिन जिस मामले में जनप्रतिनिधियों की ही जेब गरम ना हो तो शायद वे उसपर अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहते.
आपको बता दें कि कोकड़ी गांव के निवासियों को आए दिन प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ रहा है, गांव का संपर्क टूटने से स्कूली बच्चों को सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है. बच्चों को स्कूल जाने के लिए नाला पार करना पड़ता है, यह तस्वीर और कहानी बदलते और विकसित भारत की है.
मजदूर वर्ग के लोगों को इस समस्या का अधिक सामना करना पड़ रहा है, उन्हें भी समझ नहीं आ रहा कि ऐसे समय में वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता में रहें, या अपने दैनिक जरूरतों को पूरा करने में. क्योकि रोजाना नाला पार कर अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करना भी आसान नहीं है.
वहीँ स्कूली बच्चों का भी भविष्य इस समस्या के समाधान पर निर्भर करता है, इसके चलते लगातार इस बेकसूर बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है, क्या गलती है इन बच्चों की जो भारत के एक छोटे से गाँव में जन्म लेकर शिक्षा जैसी मुलभुत सुविधा को तरस रहे हैं.
“राजनीति भी अब आज के जमाने में समाजसेवा ना होकर बिजनेस बन चुकी है, लोग लाखों करोड़ों खर्च कर अपने मुनाफे का ग्राफ पहले ही तय कर रहे हैं, उसके बाद ही विकास के नाम पर अपने पसंदीदा ठेकेदारों को काम दिया जाता है, ताकि वह उनकी जेब भर पाए.”