पूरे देश में जमीनें लॉक.... मौजूदा कानून के मुताबिक वन की परिभाषा के चलते नहीं कर पा रहे हैं अपनी संपत्ति का उपयोग
वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने पिछले सप्ताह वन
संरक्षण कानून 1980 (Forest Conservation Act) में संशोधन से जुड़े मसौदे
का प्रकाशन किया है. इस संशोधन का मकसद वनों के डायवर्जन को आसान बनाना और
विकास कार्यों के लिए कुछ कैटेगिरी को मंत्रालय से मंजूरी लेने की आवश्यकता
से छूट देना है. मंत्रालय ने राज्य सरकारों और आम जनता से 15 दिन के भीतर
इस मसौदे पर फीडबैक मांगा है. फीडबैक की समीक्षा के बाद सरकार संशोधन का
मसौदा तैयार करेगी, जिस पर एक बार फिर से लोगों की राय ली जाएगी और मसौदे
को बिल के रूप में फिर संसद में पेश किया जाएगा.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक वन संरक्षण कानून में अभी तक सिर्फ
एक बार संशोधन किया गया है. मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि मौजूदा
कानून के मुताबिक वन की परिभाषा के चलते पूरे देश में जमीनें लॉक हो गई
हैं. यहां तक कि निजी मालिकाना हक वाले लोग भी अपनी संपत्ति का उपयोग नहीं
पा रहे हैं. मौजूदा कानून के मुताबिक किसी भी उद्देश्य के लिए जंगली जमीन
का किसी भी तरह डायवर्जन, यहां तक कि लीज पर देने के लिए भी केंद्र सरकार
की अनुमति लेनी होती है.
इससे पहले वर्ष 1996 में टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत सरकार केस
में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि की परिभाषा और दायरे का
विस्तार किया था, ताकि स्वामित्व, मान्यता और वर्गीकरण के बावजूद किसी भी
सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज सभी क्षेत्रों को शामिल किया जा
सके. पहले ये कानून बड़े पैमाने पर वनों और राष्ट्रीय उद्यानों को आरक्षित
करने के लिए लागू किया जाता था, लेकिन कोर्ट ने ‘जंगल के शब्दकोशीय अर्थ’
को शामिल करने के लिए वनों की परिभाषा का भी विस्तार किया, जिसका अर्थ है
कि एक वनोच्छादित जगह स्वचालित रूप से ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ बन जाएगी, भले ही
इसे संरक्षित जगह के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया हो, भले ही स्वामित्व
निजी हो या सार्वजनिक. आदेश की व्याख्या यह मानने के लिए भी की गई थी कि यह
अधिनियम गैर-वन भूमि में वृक्षारोपण पर लागू है.