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कुश के बारे में जानकारी

कुशा जिसे सामन्य घास समझा जाता है उसका बहुत ही बड़ा महत्व है , कुशा के अग्र भाग जोकी बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं

""तीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र इसीलिए कहा जाता है ""

पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है।

इसकी पावनता के विषय में कथा पुराणों में एक कहानी है।

महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा।

कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए।

कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा।

विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे।

गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया।

यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए।

उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा।

कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है, किंतु ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए।

कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधन की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है।

वेदों ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।

कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है।

इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।

हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश का उपयोग किया जाता है।

कुश जब पृथ्वी से उत्पन्न होती है तो उसकी धार बहुत तेज होती है। असावधानी पूर्वक इसे तोडऩे पर हाथों को चोंट भी लग सकती है।

पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने का कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था।

कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता।

पांच वर्ष की आयु के बच्चे की जिव्हा पर शुभ मुहूर्त में कुशा के अग्र भाग से शहद द्वारा सरस्वती मन्त्र लिख दिया जाए तो वह बच्चा कुशाग्र बन जाता है।

कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।




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